आंगन का दिया


उस दिन सारे गाँव में बिजली नहीं थी क्योकिं सुबह से बारिश बहुत तेज़ थी, शायद कोई तार हिल गया होगा या ट्रांसफार्मर में आग लग गयी होगी| हर शाम की तरह दादी ५ बजे ही खाना बनाने बैठ गयी और दादू उनको हर रोज़ की तरह सामान उठा-उठा कर मदद करने लगे| खाना बना और खा-पी कर हम सब ६ बजे तक बिस्तर में आ गए| मैं दूसरे कमरे मैं थोडा लैपटॉप पर अपना काम निपटने चली गयी| दादू ने रेडिओ ओन कर किशोर के पुराने गाने लगा दिए और दोनों अपनी-अपनी खाट पर लेटे-लेटे गुनगुनाने लगे|

थोड़ी देर काम करने के बाद सोचा क्यों न इतने बड़े घर में फैले सन्नाटे की कहानी दादू से सुनी जायें, सोच कर  मैं भी उनकी साइड में पड़ी खाट पर आ कर लेट गयी और बारिश की गिरती बूदों को सुनने का प्रयास करने लगी| कोठरी में तमाम पुराना सामान था या कहूँ दादी को जो सामान उनके मायके से शादी के वक़्त मिला था वही- लोहे का नक्कासियों से जड़ा हुआ संदूक, पुराना रेडियो, एक टूटी सी साइकिल, जिसकी चैन नीचे तक झूल रही थी, जिससे पता चल रहा था कि वह आने काम में सफल रही है| एक बहुत ऊँचे पाए वाली खाट, जिस पर मुझे सुलाया गया था और पीतल के कुछ बर्तन|
२ दिन हो गए थे आये मुझे, इतना बड़ा घर, जिसमें सभी सुख-सुविधाएं, बड़े-बड़े ऊपर से नीचे तक कमरे बने हुए थे, उनमें डबल बेड, सोफे कुर्सी भी थे, परन्तु फिर भी न जाने क्यों  दादा- दादी इस पुरानी कोठरी में ही अपना ज्यादातर वक़्त गुजारते हैं|

थोड़ी देर मौन रहने के बाद मैंने गानों की श्रंखला में खलल डाली और पूछा सब कहाँ-कहाँ सेटल हो गए दादू..? कुछ पल थमे और फिर दोनों ने बोलना शुरू किया और बोलते गए, कभी बोलते-बोलते दोनों हसे तो कभी आँखें भर भी आयीं| यादों का सिलसिला करीबन २ घंटे बिना किसी अन्तराल के चलता रहा और अंत में बिना किसी पड़ाव पर पहुचे समझोते पर आ कर रुक गया|

मैंने दादू का परिचय नहीं कराया| मेरे ही दादू नहीं बल्कि सारा स्कूल उनको प्यार से दादू बोलता था क्योंकि वह सबसे ज्यादा अनुभवी थे पूरे स्कूल में| रिटायर्मेंट के बाद इलाहाबाद के पास अपने छोटे से बड़े गाँव मैं वापस आ गए और अपने माँ बाप की सेवा में लग गए| कुछ दिन बाद पिताजी ने समाधी ले ली परन्तु माँ आज भी जिंदा हैं और उनका ख्याल दादू बड़े प्यार से रखते हैं|

बनारस से गुजरते वक़्त मैंने सोचा क्यों ना गुरुपूर्णिमा वाले दिन दादू को सरप्राइज दिया जाये, परन्तु बिना उनकी मदद के उस गाँव में पहुचना थोडा मुश्किल था| दादू ३ घंटे पहले ही बस स्टैंड आ कर बैठ गए और आस-पास के सारे लोगों को बता दिया कि मेरी बेटी आ रही है| गाँव की खूबसूरती होती है कि मेहमान एक के घर में आये तो वो सबका मेहमान होता है| जब मैं पहुची तो बस स्टैंड पर बहुत से लोग मेरा इंतज़ार कर रहे थे| सबको अभिवादन कर उनसब के साथ दादू के घर आ गयी और हसी-मजाक, ठहाके- यादों का सिलसिला तक़रीबन सारे दिन चला| दादू ने अपनी लिखी बहुत सारी  नयी कवितायेँ सुनाई, वह बेहद खुश थे, हम मंडी गए, सब्जी खरीद, बहुत तरह के आम ख़रीदे, कई लोगों से मिले|

२ दिन बाद मुझे जयपुर के लिए निकलना था| मैं सामान पैक कर रही थी और दादू साइड में बैठ कर मुझे बार-बार धन्यवाद दे रहे थे और अगली बार आने की तिथि पूछ रहे थे| दादी ने बहुत तरह के बहुत सारे आम पैक कर दिए| मैंने गाँव के बहुत लोगों से विदाई ली और दादी को गले लगाया ही थी कि  उनकी आँखों से आंसू बह निकले और दादू ने एक रुखी मुस्कराहट के साथ कहा तुम घर को फिर से सुना कर चली| मैंने उनकी दोनों की आँखों में दर्द की एक पोटली को फिर से खुलते देखा, उस हरिया घर को सूखते झाड बनने की कसक को मैं साफ़ महसूस कर पा रही थी| सजी हुई दीवारें जो अब धूमिल होती जा रही थीं और छत से गिरती बेलें अचानक से बोलने लगी| मैंने बैग उठाया और चलती चली गयी और न जाने कहाँ तक मैं अपने आँखों में आये सैलाव को रोक नहीं पाई|

कहानी अभी बाकि है......

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